Tuesday 15 April 2014

शिक्षा की सूरत बदलने का हथियार आरटीई


मित्रों,
पिछले 14 सालों में केंद्र और राज्य सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक सुधार तथा सब को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए कई महत्वपूर्ण योजनाएं शुरू की हैं. इसमें कई नये प्रयोग किये गये हैं, जो वैसे बच्चों के लिए खास तौर पर तैयार किये गये, जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं तथा सामाजिक -आर्थिक रूप से कमजोर हैं. 10वीं पंचवर्षीय योजना में माध्यमिक शिक्षा के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए केंद्र सरकार ने सरकारी तथा निजी भागीदारी को लेकर ठोस समझ तैयार की. इसके तहत निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को मिल रही शिक्षा की गुणवत्ता तथा वहां के शैक्षणिक माहौल सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को भी उपलब्ध कराने की चिंता शामिल है. दरअसल एक तो अब तक तमाम प्रयासों के बावजूद यह स्थिति बनी रही कि समाज के सभी वर्ग के बच्चों तक स्कूली शिक्षा नहीं पहुंचायी जा सकी. नयी सदी में सरकार की यह सबसे बड़ी चुनौती थी. दूसरी बात कि जो बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, उन पर होने वाले खर्च का पूरा-पूरा लाभ उन्हें नहीं मिल पा रहा. अन्य क्षेत्रों के अलावा शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार के मामले में सरकारी तंत्र की स्थिति अलग नहीं है. तीसरी बात सरकारी स्कूलों का शैक्षणिक माहौल और शिक्षा की गुणवत्ता निजी स्कूलों के मुकाबले बेहद कमजोर है. इससे आने वाले समय में शिक्षा के स्तर पर दो जरह का समाज तैयार हो रहा है. एक जो सरकारी स्कूलों से पढ़ कर निकले बच्चों का है और दूसरा निजी स्कूलों से पढ़ कर आये बच्चों का. शिक्षा के स्तर को लेकर समाज दो हिस्सों में साफ-साफ बंट रहा है. इस खाई को पाटना एक और बड़ी चुनौती बनी है. इस चुनौती को पूरा करने के लिए पिछले 14 सालों में बहुत कुछ प्रयास हुए हैं. इन पर अरबों रुपये खर्च हुए हैं. इनमें प्राथमिक शिक्षा, बालिका शिक्षा. बाल अधिकार, बालिका-कल्याण, राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान, स्कूलों में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी, शिक्षा का अधिकार, मॉडल स्कूल जैसे प्रयास शामिल हैं. इन सब के बावजूद स्थिति में कितना बदलाव आया और शिक्षा संबंधी योजनाओं का हाल क्या है, यह जानना हर सजग नागरिक की जवाबदेही भी है. यहां ऐसी कुछ योजनाओं और कार्यक्रमों की चर्चा कर रहे हैं आरके नीरद.

आप जानते हैं कि हमारे संविधान में छह से 14 साल तक के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा की गारंटी दी गयी है. संविधान के अनुच्छेद 21 ए (भाग 3) में इसका जिक्र है. दिसंबर 2002 में 86वें संशोधन में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार माना गया. यहां से शिक्षा के अधिकार कानून का सफर शुरू हुआ. इसमें लोगों और विशेषज्ञों की राय ली गयी. उनके आधार पर इसमें संशोधन हुआ. फिर केंद्रीय शिक्षा सलाहकार पर्षद समिति और मानव संसाधन विकास मंत्रलय ने इसमें अपनी राय जोड़ी.

लंबी प्रक्रिया को पूरा होने में करीब सात साल लगे. इसका परिणाम शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के रूप में हमें मिला. यह छह से 14 साल तक के बच्चों को  मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का कानूनी अधिकार देता है.  उन्हें नजदीक के स्कूलों में मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा पाने का यह अधिकार है. इसके अभिभावक से स्कूल किसी तह की फीस नहीं लेग सकता. चाहे वह एडमिशन फी हो या टय़ूशन फी. यहां तक कि यूनीफॉर्म, किताब,  मध्याह्न् भोजन, बस का किराया वगैरह के नाम पर स्कूल प्रबंधन कोई राशि नहीं वसूल सकता.

80 लाख बच्चे थे स्कूल से बाहर

जब यह कानून बना था, तब यह अनुमान किया गया था कि देश में छह से 14 साल तक के करीब 60 लाख बच्चे ऐसे हैं, जो स्कूल नहीं जाते हैं.

गुणवत्ता में भी सुधार

इस कानून के मुताबिक बच्चों का स्कूलों में केवल नामांकन करना और उन्हें पढ़ाई में शामिल करना ही नहीं है, उन्हें वह सब सुविधाएं भी उपलब्ध करानी हैं, जो उनके शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास के लिए जरूरी हैं. उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जानी है. इसके लिए यह तय किया गया है कि स्कूल में शिक्षा तथा उससे जुड़ी गतिविधियों के लिए बेहतर माहौल बने. प्राथमिक स्तर पर शिक्षक-छात्र अनुपात भी इसमें यह है. यह अनुपात 60:01 का है. यानी प्रत्येक साठ बच्चों पर एक शिक्षक होना जरूरी है.

शिक्षकों के लिए समय की पाबंदी

ग्रामीण स्कूलों की सबसे बड़ी शिकायत है कि वहां शिक्षक समय पर स्कूल नहीं आते और स्कूल की अवधि पूरी होने के पहले चले जाते हैं. दूसरी शिकायत है कि वे कोर्स पूरा नहीं कराते हैं. तीसरा कि पढ़ाने के मामले में उनकी मनमानी चलती है. इस कानून में इन तीनों शिकायतों का समाधान किया गया है. शिक्षक देर से स्कूल नहीं आ सकते और समय से पहले स्कूल छोड़ कर नहीं जा सकते. चूंकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम एक कानून है. इसलिए इस मामले में कोई भी लापरवाही कानून का उल्लंघन है. इस कानून के मुताबिक शिक्षकों को समय सीमा तय कर यानी प्लान बना कर पाठ्यक्रम को हर हाल में पूरा करना है. वे केवल खास-खास अध्याय या विषय पढ़ा कर अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं मान सकते है. ऐसा इसलिए भी है कि अब जो पाठ्यक्रम बनाये गये हैंे, वे बड़े ही व्यावहारिक हैं और उसके एक-एक भाग को बच्चों के ज्ञान के लिए उपयोगी माना गया है. बच्चे क्या पढ़ रहे हैं और उनकी प्रगति कैसी है, यह जानने और जांचने का अधिकार उनके अभिभावक को भी है. यह अभिभावक केवल मां-बाप ही नहीं हैं. अगर वे अनपढ़ हैं या कम शिक्षा प्राप्त हैं, तो परिवार का दूसरा पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी उनकी ओर से यह जानने और जांचने का अधिकार रखता है. निजी स्कूलों में यह व्यवस्था पहले से थी. अब सभी स्कूलों में इसे कानूनी तौर पर जरूरी बना दिया गया है. इसके तहत शिक्षकों को बच्चों के मां-पिता के साथ समय निश्चित कर बैठक करनी है.

बच्चों में सीखने की प्रक्रिया पर जोर

इस कानून में केवल पुस्तक पढ़ाने और उस आधार पर परीक्षा लेने तक शिक्षा को सीमित नहीं किया गया है. इसमें बच्चों में सीखने की प्रक्रिया को विकसित करने पर भी जोर है. इसमें समुदाय की भी भागीदारी की व्यवस्था है.

देश भर में लागू है यह कानून

आप जानते हैं कि पहली अप्रैल 2009 से यह कानून लागू हो चुका है. इसमें किसी भी तरह की लापरवाही की जाती है, तो आप इसकी शिकायत तुरंत जिलाधिकारी या उपायुक्त से कर सकते हैं. वैसे इसके लिए जिला स्तर पर शिक्षा विभाग को जिम्मेवार बनाया गया है.

स्कूलों में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आइसीटी)

यह दिसंबर 2004 में शुरू की गयी योजना है. यह केंद्र प्रायोजित है. इसका मकसद माध्यमिक विद्यालय के छात्र-छात्रओं को को सूचना व संचार प्रौद्योगिकी पर आधारित शिक्षण सुविधा उपलब्ध कराना है.

बालिका शिक्षा

इसके तहत कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना चल रही है. 2001 की जनगणना के मुताबिक देश में 49.46 करोड़ महिलाएं थीं, जिनमें से केवल 53.67 प्रतिशत ही साक्षर थीं. यानी 22.91 करोड़ महिलाएं निरक्षर थीं. केंद्र सरकार ने 2004 में अनुसूचित जाति, जनजाति व पिछड़े वर्ग की बालिकाओं के लिए सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में आवासीय उच्च प्राथमिक विद्यालय की योजना शुरू की. इसे कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय योजना कहा गया. पहली अप्रैल, 2007 को इसे सर्व शिक्षा अभियान से जोड़ दिया गया. इस विद्यालय का उद्देश्य विषम परिस्थितियों में जीवन-यापन करने वाली अभिवंचित वर्ग की बालिकाओं के लिए आवासीय विद्यालय के माध्यम से गुणवत्तापूर्ण  प्रारंभिक शिक्षा देना है.

राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान

इसका उद्देश्य माध्यमिक शिक्षा में सुधार है. इसके तहत प्रत्येक पांच किलोमीटर की परिधि में एक माध्यमिक विद्यालय, जो दसवीं तक हो, की व्यवस्था करना है. साथ ही उन स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था करनी है. इसके जरिये 2020 तक छह से 14 तक के सभी बच्चों का  स्कूलों में ठहराव सुनिश्चित करना है.

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